दीवार में खिड़कियां स्वच्छ हवा आने के लिए होती हैं। वे अकसर खुलने और बंद होने की प्रक्रिया से गुजरती हैं। खिड़कियां झांकने के लिए भी होती हैं। कई बार हमें खिड़कियों के खुलने का बेसब्री से इंतजार रहता है, लेकिन ऐसा हर खिड़की के साथ नहीं होता। कोई खास खिड़की होती है, जिसके खुलने की प्रतीक्षा में हम पूरा दिन बिता देते हैं। उसके खुलने की राह देखते-तकते आंखें पथराकर सफेद हो जाती हैं। किसी के इंतजार में अमूमन ऐसा होता ही है। पर मनहूस खिड़की है कि कभी-कभी खुलती ही नहीं। आंखें दिखा देती हैं। आठ पहर बीत गए और हम हैं कि नजरें गड़ाए बैठे हुए हैं।
इन बेजान खिड़कियों को किसी के दर्द का क्या पता। खिड़की पर किसी के हाथ की जुंबिश हुई कि हमारी आंखें फैलकर चौगुनी हो गईं। लो, हो गया दीदार। कोई एक पल भी झांककर चला गया, तो समझो कि जन्नत नसीब हो गई। गोया हवा का एक शीतल झोंका दिल के भीतर तक उतरकर सराबोर कर गया हो। मुझे लगता है कि हर किसी की जिंदगी की दीवार में एक अदद खिड़की का वजूद रहता है। बकौल शायर, हमने तुमने बचपन में अपनी-अपनी खिड़की से/ आईनों की किरणों से कितने खेल खेले हैं/ अब जवान होते ही क्या हुआ खुदा जाने/ खिड़कियां नहीं खुलतीं आईने अकेले हैं।
खिड़कियां कई बार अपनी बेरहमी से आईनों को अकेला कर देती हैं और आईने हैं कि तड़पते रह जाते हैं। वे नहीं जानतीं कि उनके खुलने से आईने मुसकरा उठते हैं और बंद होते ही उदास हो जाते हैं। पर खिड़कियां भी कई बार किसी के इंतजार में बेचैन और अकेली होती हैं। वे सुबह से शाम तक अपने पट खोले उन आईनों में सूरत देखने के लिए बदहवास रहती हैं, जिनमें एक बार अपना अक्स देख चुकी होती हैं। मुनव्वर राना ने कहा भी है, हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गई होंगी, वे आंखें जिनको हम खिड़की पर रख छोड़ आए हैं। पर कुछ खिड़कियां बहुत समझदार किस्म की होती हैं। वे सांकेतिक भाषा का अनुवाद भी कर लेती हैं और तभी खुलती हैं, जब उन्हें इसकी जरूरत महसूस होती है। अगर आप अच्छे पारखी हैं, तो खिड़कियों के खुलने व बंद होने से भी समय का अंदाजा लगा सकते हैं। खिड़कियां जब हमारी इच्छानुसार खुलती हैं, तो दिन ज्यादा छोटे, पुरसुकून और खिले-खिले हो जाते हैं।
हममें से बहुतों की उम्र जब पचास पार कर जाती है, तब खिड़कियों का अर्थ हमारे लिए वही नहीं रहता, जो बीस की उम्र में रहा होता था। जिन लोगों के सपनों में कोई खिड़की नहीं आती, वे भाग्यशाली नहीं होते। खिड़की हर बार अपने साथ एक अदद चेहरा लेकर आती है और उसे अपने फ्रेम में जड़ देती है।
जब हम पचास के हो जाते हैं, तब खिड़कियों का अर्थ हमारे लिए वही नहीं रहता, जो बीस की उम्र में रहता है।
8 comments:
मुझे लगता है कि बीस वर्ष की आयु में किसी खास के आने की इंतजार में खिड़की सदा खुली रहती है लेकिन पचास के बाद भी उसका महत्व उतना ही बढ जाता है तब किसी आम व्यक्ति के आने का भी राह ताक रही होती हैं आँखे। अच्छी पोस्ट, बधाई।
bahut hi badiya lekh likha hai aapne.....
waise bhi umar k saath saath soch bhi badal jaati hai , jo 20 saal ki umar mein socha jaata hai 50 ki umar aate aate wo sab kuch badal jaata hai...
Mere blog par bhi sawaagat hai aapka.....
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sach kahate hai....... sunder lekah hai..
आप की रचना 17 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
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आभार
अनामिका
आपकी रचना सपनों की खिड़कियाँ आज के चर्चा मंच पर नहीं बल्कि कल १७ तारिख के चर्चा मंच पर ली जायेगी.
अर्थ भले ही बदल जाये पर सपनो की खिड़कियाँ खुली रहनी चाहियें ...उम्र के साथ ज़िंदगी के अर्थ भी बदलते हैं .
खिड़की हर बार अपने साथ एक अदद चेहरा लेकर आती है और उसे अपने फ्रेम में जड़ देती है।.....बेहतरीन लेख ...कुछ खिड़कियाँ हमेशा दिल में खुली रहती है चाहते हुए भी उन्हें बंद नहीं कर पाते ...हर उम्र के पडाव के अर्थ अपने ही होते हैं ..बहुत पसंद आया यह शुक्रिया
bahut khoob
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