Friday, September 17, 2010

क्या आपने देखा है भगवान् को? (अयोध्या राम मंदिर पर विशेष )

 मेरी समझ में ये नही आता है कि जिस चीज को किसी ने नही देखा है उसके लिए क्यों सर खपाते हैं? क्यों हम किसी भगवान् या अल्लाह के लिए अपना सारा काम काज छोड़ कर उसके विषय पर चर्चा करें? क्या आज तक किसी ने भगवान् या अल्लाह को साक्षात देखा है? या कोई ऐसा चमत्कार जिस से की सिर्फ भगवान् या अल्लाह की मौजूदगी का अहसास हो? क्या आपने देखा है भगवान् को? फिर आप और हम क्यों चिंता करें भगवान् की? अगर भगवान् स्वयं शक्तिशाली हैं तो क्यों नहीं अभी तक आकाश से आकाशवाणी हुई कि- हाँ वहां राम मंदिर का निर्माण होना चाहिए. जिस भगवान् राम ने सारे ब्रह्माण्ड की संरचना की क्यों वो खुद के लिए मंदिर की निर्माण नहीं कर सकते?

दरअसल ना तो कोई भगवान् हैं ना ही कोई अल्लाह ना ही कि जीसस . सभी एक ही शक्ति के अलग अलग नाम हैं. हम इंसान भी बेहद मुर्ख हैं जो एक ही शक्ति की उपासना करते हैं लेकिन सिर्फ बोलचाल की भाषा के कारण उसे अलग अलग नाम से पुकारते हैं और उसी नाम के चलते आपस में लड़ते भी हैं. 

जिस परम शक्ति ने हमें धरती दी है हमारी ये औकात कि हम उसी धरती पर उनके लिए घर बना सकें और अपने आप को भगवान् या अल्लाह का आश्रयदाता कहला दें? जिस भगवान् या अल्लाह ने मनुष्य को खरबों खरब टन अनाज दिया है हम उन्ही को उन्ही के दिए अनाज के चंद दानों का प्रसाद चढ़ा कर अपने वश में करना चाहते हैं? मनुष्य की कोई औकात ही नही है कि वो उस परम शक्ति के लिए धरती पर चंद इंटो को घर बना देजिन्होंने इस धरती का ही नहीं बल्कि इस सौरमंडल की तरह लाखों सौरमंडल का निर्माण किया हो.

दस मंजिली इमारत के छत पर से आप अगर नीचे देखोगे तो नीचे दिखने वाले इंसान चीटियों की तरह नजर आते हैं. वहां से तब कुछ पता नहीं चलता कि कौन हिन्दू है कौन मुस्लिम है , कौन सिख है या कौन इसाई? सभी एक ही तरह दिखने लगते हैं और हम कहते हैं कि वो इंसान हैं.

आप घर में या बाहर जो खाना खाते हैं क्या आपने कभी सोचा है कि इस खाने का अनाज हिन्दू के खेत का है या मुस्लिम के खेत का? आप जो वस्त्र पहनते हैं क्या आप सोचते हैं कि इस वस्त्र को बुनने वाले हाथ हिन्दू के हैं या मुस्लिम के? हम सभी इंसान हैं और इंसान ही इंसान कि जरूरत को पूरा कर सकता है.

धर्म का निर्माण जंगली मनुष्य को सामाजिक मनुष्य के रूप में परिवर्तित करने के लिए किया गया. किन्तु आज के नेता लोग उसी धर्म को सामाजिक मनुष्य को जंगली मनुष्य बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं.

By the way ... मेरे विचार से जिस जगह पर राम मंदिर का निर्माण करने के लिए कहा जा रहा है वो जगह बेहद छोटी है एवं तंग गलियों से हो कर जाना पड़ता है. अगर राम मंदिर का निर्माण करना ही है तो कोई आवशयक नहीं कि उसी स्थान पर किया जाए. मेरा ये मत है कि पूरी अयोध्या ही भगवान् राम कि जन्मभूमी है इसलिए उस स्थान से हट कर कहीं हट कर अयोध्या में ही कम से कम 10 वर्ग किलोमीटर के स्थान चुन कर भगवान् राम का भव्य एवं विशाल मंदिर बनाया जाना चाहिए क्यों को भगवान् का घर कोई छोटे मोटे स्थान पर हो तो उसका महत्व कम हो जाता है. विशाल जगह ही भगवान् के विराट स्वरुप का सही प्रदर्शन कर सकता है. लेकिन एक शर्त ये भी होनी चाहिए कि उस विशाल मंदिर में सभी धर्मों के लोगों को आने का मौक़ा देना चाहिए ताकि देश से ही नही बल्कि विदेश से भी अनेकों विदेशी आ कर भारतीय सभ्यता का भव्यता देख कर अभिभूत रह जाएँ और परम शक्ति को पूजने का अधिकार सभी मनुष्य को मिलना चाहिए. इस प्रकार से अयोध्या में पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा. मेरे विचार से भारत सरकार और राज्य सरकार दोनों को भारत में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अयोध्या में विवादित स्थान से हट कर एक इतना विशाल भव्य राम मंदिर का निर्माणकरे कि जिस प्रकार ताजमहल , लालकिला आदि 500 सालों के बाद भी भारतीय संस्कृती की पहचान बनी हुई है उसी प्रकार से आने वाले सैकड़ोंसालों तक विशाल राम मंदिर भी भारतीय संस्कृति कि पहचान बनी रहे.

मुझे नहीं लगता कि विवादित स्थान से अलग मंदिर बनाए जाने पर हिन्दू या मुसलमानों को कोई प्रकार की आपत्ति होनी चाहिए.
मै फिर कहूँगा कि उस चीज के लिए मत लड़े जिसे किसी ने हज़ारों सालो से नहीं देखा है. धर्म सिर्फ आस्था का विषय है. धर्म हमें जीना सिखाती है किसी मानव को मारना नहीं. 

Wednesday, September 15, 2010

राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण हो ?

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने देश के मुसलमानों का आ ान किया है कि वे खुद आगे आकर राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण की पहल कर दुनिया को बताएं कि उन पर लगने वाला विदेशपरस्ती का आरोप बेबुनियाद है। उन्होंने साफ किया कि हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिए अयोध्या में मंदिर ढहाकर विवादित ढांचा बनाया गया था। हाई कोर्ट का फैसला 24 सितंबर को आने वाला है। उसके पहले संघ प्रमुख का यह बयान काफी मायने रखता है। दिल्ली में एक कार्यक्रम में भाग लेने आए भागवत ने कहा कि हर हिंदू चाहता है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण हो। चूंकि मामला अदालत में है, इसलिए वहां के निर्णय का इंतजार किया जा रहा है। फैसला जो भी हो, संघ की प्रतिक्रिया लोकतांत्रिक होगी। एक सवाल के जवाब में उन्होंने दो टूक कहा कि आगे की कार्रवाई के लिए अगर सुप्रीम कोर्ट भी जाना पड़ा तो जाएंगे लेकिन यह बाद की बात है। उन्होंने कहा कि संघ इस मुद्दे पर देश को विभाजित नहीं देखना चाहता है इसलिए पिछले 5-6 साल से मुस्लिम नेताओं से बातचीत भी जारी है। उन्हें बताया जा रहा है कि राम मंदिर आंदोलन किसी भी रूप में मुसलमानों के खिलाफ नहीं है
Ramjanmbhumi Ramjanambhumi ayodhya 

सपनों में खिड़कियां

दीवार में खिड़कियां स्वच्छ हवा आने के लिए होती हैं। वे अकसर खुलने और बंद होने की प्रक्रिया से गुजरती हैं। खिड़कियां झांकने के लिए भी होती हैं। कई बार हमें खिड़कियों के खुलने का बेसब्री से इंतजार रहता है, लेकिन ऐसा हर खिड़की के साथ नहीं होता। कोई खास खिड़की होती है, जिसके खुलने की प्रतीक्षा में हम पूरा दिन बिता देते हैं। उसके खुलने की राह देखते-तकते आंखें पथराकर सफेद हो जाती हैं। किसी के इंतजार में अमूमन ऐसा होता ही है। पर मनहूस खिड़की है कि कभी-कभी खुलती ही नहीं। आंखें दिखा देती हैं। आठ पहर बीत गए और हम हैं कि नजरें गड़ाए बैठे हुए हैं
इन बेजान खिड़कियों को किसी के दर्द का क्या पता। खिड़की पर किसी के हाथ की जुंबिश हुई कि हमारी आंखें फैलकर चौगुनी हो गईं। लो, हो गया दीदार। कोई एक पल भी झांककर चला गया, तो समझो कि जन्नत नसीब हो गई। गोया हवा का एक शीतल झोंका दिल के भीतर तक उतरकर सराबोर कर गया हो। मुझे लगता है कि हर किसी की जिंदगी की दीवार में एक अदद खिड़की का वजूद रहता है। बकौल शायर, हमने तुमने बचपन में अपनी-अपनी खिड़की से/ आईनों की किरणों से कितने खेल खेले हैं/ अब जवान होते ही क्या हुआ खुदा जाने/ खिड़कियां नहीं खुलतीं आईने अकेले हैं।
खिड़कियां कई बार अपनी बेरहमी से आईनों को अकेला कर देती हैं और आईने हैं कि तड़पते रह जाते हैं। वे नहीं जानतीं कि उनके खुलने से आईने मुसकरा उठते हैं और बंद होते ही उदास हो जाते हैं। पर खिड़कियां भी कई बार किसी के इंतजार में बेचैन और अकेली होती हैं। वे सुबह से शाम तक अपने पट खोले उन आईनों में सूरत देखने के लिए बदहवास रहती हैं, जिनमें एक बार अपना अक्स देख चुकी होती हैं। मुनव्वर राना ने कहा भी है, हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गई होंगी, वे आंखें जिनको हम खिड़की पर रख छोड़ आए हैं। पर कुछ खिड़कियां बहुत समझदार किस्म की होती हैं। वे सांकेतिक भाषा का अनुवाद भी कर लेती हैं और तभी खुलती हैं, जब उन्हें इसकी जरूरत महसूस होती है। अगर आप अच्छे पारखी हैं, तो खिड़कियों के खुलने व बंद होने से भी समय का अंदाजा लगा सकते हैं। खिड़कियां जब हमारी इच्छानुसार खुलती हैं, तो दिन ज्यादा छोटे, पुरसुकून और खिले-खिले हो जाते हैं।
हममें से बहुतों की उम्र जब पचास पार कर जाती है, तब खिड़कियों का अर्थ हमारे लिए वही नहीं रहता, जो बीस की उम्र में रहा होता था। जिन लोगों के सपनों में कोई खिड़की नहीं आती, वे भाग्यशाली नहीं होते। खिड़की हर बार अपने साथ एक अदद चेहरा लेकर आती है और उसे अपने फ्रेम में जड़ देती है।

जब हम पचास के हो जाते हैं, तब खिड़कियों का अर्थ हमारे लिए वही नहीं रहता, जो बीस की उम्र में रहता है

Monday, September 13, 2010

राष्ट्र बेचैन है

राष्ट्र बेचैन है। श्रीराम जन्मभूमि मसले के भूमि मालिकाना मुकदमे का फैसला आने वाला है। उत्तर प्रदेश सरकार किसी अनहोनी की कल्पना से भयभीत है। अतिरिक्त पुलिस प्रबंधन का शोर है। केंद्र से अतिरिक्त पुलिस बल आने वाला है। न्यायालय आदरणीय संस्था है। न्यायालय तत्समय प्रवृत्त विधियों के अधीन फैसले देते हैं। राष्ट्र-राज्य और संसद राष्ट्रीय आकांक्षाओं के प्रतिनिधि होते हैं। उन्हें राष्ट्रीय आकांक्षा पर ध्यान देना चाहिए। बहुचर्चित शाहबानो मुकदमे में न्यायिक फैसले के बाद विधि संशोधन हुआ। मामला इस्लामी आस्था और शरीयत का था। उत्तर प्रदेश के वाराणसी के दोषीपुरा मोहल्ले के एक स्थल पर शिया-सुन्नी टकराव था। 1970 के दशक में न्यायालय ने फैसला सुनाया। 40 बरस से ज्यादा समय हो गया, लेकिन सरकार ने फैसला लागू नहीं किया। उत्तर प्रदेश के हरदोई-शाहबाद के कौशल्या देवी मंदिर का मसला अंग्रेजीराज की सर्वोच्च न्यायपीठ-प्रीवी काउंसिल तक गया। अंग्रेजी सत्ता ने भी काउंसिल का फैसला लागू नहीं कराया। मंदिर आज भी है। अयोध्या विवाद में भूमि का मालिकाना हक न्यायालय बताएगा। उसका सम्मान होना चाहिए, लेकिन आस्था का प्रश्न तो ज्यों का त्यों रहेगा। हिंदू आस्था आंतरिक सत्यानुभूति है। मा‌र्क्सवाद के अनुसार संस्कृति और सभ्यता का विकास अतिरिक्त उत्पादन से हुआ, लेकिन हिंदू संस्कृति और आस्था का विकास अतिरिक्त जिज्ञासा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हुआ। हिंदू आस्था का अंदाज निराला है। करोड़ों ने देखा, करोड़ों ने सुना और गुना, अंतत: अनुभूति हुई और आस्था बनी। ऋग्वेद में सृष्टि निर्माणकर्ता पर भी जिज्ञासुपरक टिप्पणियां हैं। पंथिक आस्थाओं का निर्माण देववाणी और पवित्र पुस्तकों से हुआ। हजरत मोहम्मद और यीशु के वचन अत‌र्क्य हैं। श्रीराम भारतीय राष्ट्रभाव का चरम आनंद हैं, वे मंगल भवन हैं, अमंगलहारी हैं। वे भारतीय मन के सम्राट हैं, पुराण में हैं, काव्य में हैं, इतिहास में भी हैं। लेकिन श्रीराम पर बहस है कि वे काव्य कल्पना हैं या इतिहास? वे इतिहास हैं तो जन्मस्थान भी बहस के घेरे में है। न्यायालय के निर्देश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने खुदाई की थी। बहरहाल, रिपोर्ट में ईसा पूर्व 3500 वर्ष से 1000 ईसा पूर्व तक अयोध्या एक बस्ती है। शुंग काल (200-100 ईपू) कुषाण काल (100 ई-300 ई) और गुप्तकाल (400 ई-600 ई) तक यहां बस्तियां हैं, सिक्के हैं, देवी भी हैं। इसके बाद के स्तरों में मंदिरों के अवशेष हैं। एएसआई रिपोर्ट के अनुसार एक गोलाकार विशाल मंदिर दसवीं सदी में बना। इसके उत्तर में जलाभिषेक का प्रवाह निकालने वाली नाली भी है। फिर एक दूसरा मंदिर है। यहां हिंदू परंपरा का प्रतीक कमल है, वल्लरी हैं। 50 खंभों के आधार मिले हैं। काले पत्थरों के खंभों के अवशेष भी हैं। यह मंदिर लगभग 1500 ईसवी तक रहा। आगे का इतिहास इस्लामी हमलों का है। सन 1528 में बाबर के सिपहसालार मीरबाकी ने इसी मंदिर को गिराकर बाबरी मस्जिद बनवाई। आस्टि्रया के टाइफेंथेलर ने लिखा है कि बाबर ने राम मंदिर को ध्वस्त किया और मस्जिद बनाई। ब्रिटिश सर्वेक्षणकर्ता (1838) मांट गुमरी मार्टिन के मुताबिक मस्जिद में इस्तेमाल स्तंभ राम के महल से लिए गए। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में भी सन 1528 से पूर्व बने एक मंदिर का हवाला है। एडवर्ड थार्नटन ने लिखा कि बाबरी मस्जिद हिंदू मंदिर के खंभों से बनी। बाबरी मस्जिद निर्माण पर ढेर सारी टिप्पणियां हैं। पी कार्नेगी भी हिस्टारिकल स्केच आफ फैजाबाद, विद द ओल्ड कैपिटल्स अयोध्या एंड फैजाबाद में मंदिर की सामग्री से बाबर द्वारा मस्जिद निर्माण का वर्णन करते हैं। गजेटियर ऑफ दि प्राविंस आफ अवध में भी यही बातें हैं। फैजाबाद सेटलमेंट रिपोर्ट भी इन्हीं तथ्यों को सही ठहराती है। इंपीरियल गजेटियर ऑफ फैजाबाद भी मंदिर की जगह मस्जिद निर्माण के तथ्य बताता है। बाराबंकी डिस्टि्रकट गजेटियर में जन्मस्थान मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने का वर्णन है। मुस्लिम विद्वानों ने भी काफी कुछ लिखा है। मिर्जा जान कहते हैं, अवध राम के पिता की राजधानी था। जिस स्थान पर मंदिर था वहां बाबर ने एक ऊंची मस्जिद बनाई। हाजी मोहम्मद हसन कहते हैं, अलहिजरी 923 में राजा राम के महल तथा सीता रसोई को ध्वस्त करके बादशाह के हुक्म पर बनाई गई मस्जिद में दरारें पड़ गई थीं। शेख मोहम्मद अजमत अली काकोरवी ने तारीखे अवध व मुरक्काए खुसरवी में भी मंदिर की जगह मस्जिद बनाने का किस्सा दर्ज किया। मौलवी अब्दुल करीम ने गुमगश्ते हालाते अयोध्या अवध (1885) में बताया कि राम के जन्म स्थान व रसोईघर की जगह बाबर ने एक अजीम मस्जिद बनवाई। इस्लामी हमलावरों और शासकों ने समूचे भारत में मंदिर तोड़ने व मस्जिद बनाने का अभियान चलाया था। डॉ. बीआर अंबेडकर ने पाकिस्तान आर पार्टीशन ऑफ इंडिया में लिखा, मुस्लिम हमलों का लक्ष्य लूट या विजय ही नहीं था, नि:संदेह इनका उद्देश्य मूर्ति पूजा और बहुदेववाद को मिटाकर भारत में इस्लाम की स्थापना भी था। पहले मोहम्मद बिन कासिम (711 ईसवी) फिर महमूद गजनी। महमूद के अधिकृत इतिहासकार उतवी ने लिखा, उसने मूर्तियां-मंदिर तोड़े, इस्लाम की स्थापना की। मोहम्मद गोरी के इतिहासकार हसन निजामी के मुताबिक, उसने काफिरों, बहुदेववाद, मूर्तिपूजा की अशुद्धता नष्ट की। कुतुबुद्दीन ने दिल्ली में कूवत-उल-इस्लाम मस्जिद बनाई। इसका नाम ही इस्लाम की ताकत (कूवत) है। इसकी पूर्वी दीवार पर अरबी में लिखा है, 27 मंदिरों को ध्वस्त कर सामग्री से मस्जिद बनाई गई। अजमेर में अढ़ाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद है। अढ़ाई दिन में भव्य निर्माण नहीं होते। यह विगृहराज चतुर्थ का बनाया सरस्वती मंदिर है। इसे मस्जिद बनाया गया। हसन निजामी ने कुतुबुद्दीन की तारीफ में ताज उलमासिर में लिखा विजेता ने इलाके को मूर्ति और मूर्ति पूजा से मुक्त किया, मंदिरों के गर्भगृहों में मस्जिदें बनाई। श्रीराम जन्मभूमि राष्ट्रीय भावना की प्रतीक है। करोड़ो जन आहत हैं। बाबरी मस्जिद पक्ष के भी अपने आग्रह हैं। हिंदू मानस ने दिल्ली की कूवत उल इस्लाम मस्जिद, अढ़ाई दिन का झोपड़ा आदि सैकड़ों मंदिरों के मस्जिद बनाए जाने पर शोर नहीं मचाया। लाखों मतांतरण जोरजबर से कराए गए। श्रीराम जन्मभूमि का मसला गहन राष्ट्रभाव का प्रतीक है। इसलिए उभयपक्षी संवाद अपरिहार्य है। आपसी बातचीत से निर्णय करें कि यहां क्या बनना चाहिए? क्या एक ही जगह पर मंदिर-मस्जिद दोनों बनें या मस्जिद को मंदिर से दूर बनाया जाए आदि। परस्पर संवाद सर्वोत्तम उपाय है। मुस्लिम नेतृत्व राष्ट्रीय आकांक्षा पर गौर करे। आहत हिंदू भावनाओं को सम्मान दें। संसद राष्ट्रीय आकांक्षा के अनुरूप कानून बनाए। हिंदू श्रीराम मंदिर नहीं छोड़ सकते।
मंतव्य : ह्रदय नारायण दीक्षित  

Thursday, September 9, 2010

ऐसे हमारे देश के नकाम प्रधान मंत्री

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बुधवार को उम्मीद जाहिर की कि आने वाले महीनों में मुद्रास्फीति कम हो जाएगी, जो अभी दोहरे अंक के करीब है। प्रधानमंत्री ने अपने आवास पर इफ्तार की दावत के दौरान कहा, यह कम हो रही है। आने वाले महीनों में और कम होगी।
यह पूछे जाने पर कि महंगाई पर कब तक पूरी तरह से काबू किया जा सकेगा, मनमोहन ने कहा, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं।

ज्योतिषी नहीं पर अर्थसास्त्री तो हैं..... 
अगर देश का प्रधान मंत्री ऐसा हो तो देश किस रसातल में जाएगा ???

Wednesday, September 8, 2010

आधुनिक राधा

कृष्ण तुम कब आओगे! हे कृष्ण समय बदल गया है न जुएं की चौपाल है, न कौरव-पांडव की हार-जीत है, न चीर है और न ही चीरहरण का माहौल है। इसलिए मैंने खुद को ही बदल लिया है। अब मैं महाभारत की द्रौपदी नहीं हूं। आधुनिक भारत की प्रिंयका हूं, बेधड़क घूमती हूं कम से कम कपड़ों में, पार्टियों में, माल में, आफिस में, सब जगह मौज ही मौज है। मैं ही आपकी आधुनिक राधा हूं, हे कृष्ण तुम कब आओगे! फोन की घंटी बजी तो स्वप्न टूटा नींद खुली। हेलो, कौन! अरे करिश्मा तू , ओ सिट तूने सब खराब कर दिया। क्या हुआ! कितना अच्छा स्वप्न देख रही थी, कृष्ण से बातें कर रही थी। चल छोड़ हर समय सपने में ही मत रहा कर, तैयार हो, आज कृष्ण जन्माष्टमी है मैं तुझे लेने आ रही हूं क्यों, क्या हुआ आज बॉस को कृष्ण बनाएंगे और हम दोनों राधा बनकर उसको लूटेंगे .. नहीं-नहीं बॉस कहीं उलटा हमको ही न लूट ले। देखती नहीं उसकी कैसे लार टपकती है मुझे और तुझे देखकर। अरे वो कुछ नहीं कर पाएगा अपन साथ में जो रहेंगे। नहीं, आज उलटा-सुलटा कुछ नहीं करेंगे। आज कृष्ण जरुर आएंगे, मेरा स्वप्न आज झूठा नहीं होगा। एक काम कर तू वो मिनी ड्रेस पहन कर आ जा फिर चलते हैं। दोनों मिनी-से-मिनी ड्रेस पहन कर निकल पडी प्रियंका तेरा ये क्या लाजिक है मिनी ड्रेस पहनने का, अरे तू नहीं समझेगी, याद है कृष्ण कैसे छिप-छिप कर गोपियों को नहाते देखते थे। कैसे निहारते रहते थे। आज अपन दोनों ने जो मिनी ड्रेसेज पहनी हैं उन्हें देखकर कृष्ण जरूर आएंगे। कम से कम एक बार हमें छेड़ जाएंगे तो अपना जीवन सार्थक हो जाएगा। हे कृष्ण तुम कब आओगे! वो सब तो ठीक है कहीं कोई लफंगा आकर न छेड़ जाए! देख नहीं रही अपनी ड्रेस को! क्या-क्या झलक रहा है! अरे किसी की हिम्मत नहीं होगी अपने से पंगा लेने की। तभी अचानक एक महाशय हाजिर हुए घूर घूर कर सिर से पैर तक देखना शुरू। अबे ये घूर-घूर के देखना बंद कर और निकल ले यहां से। समझा की नहीं समझा। हाय स्वीट हार्ट, क्या मक्खन के माफिक चिकनी लग रही हो। चल चल बहुत हो गया अब निकल ले, नहीं तो दूंगी एक चपाट। अच्छा नाटक है पहले बुलाते हो फिर भगाते हो। ठीक है चले जाते हैं ऊफ कितनी क्यूट राधाएं हैं। अरे प्रियंका तू क्या बडबडा रही थी किससे बातें कर रही थी देखा नहीं उस टपोरी को, कैसे लार टपक रही थी उसकी हमें देखकर। कहां, कौन अरे तूने नहीं देखा उस टपोरी को जो थोड़ी देर पहले यहां आया था। नहीं यहां तो कोई नहीं आया। ओफ हो, कहीं श्रीकृष्ण तो नहीं, देख देख वो जा रहे हैं अरे हां प्रियंका जा तो रहे हैं। देखते देखते नज़रों से ओझल हो गए। क्या वो अपने पास आए थे अरे हां यार अपन दोनों को छेड़ रहे थे। श्रीकृष्ण ने कहा-हाय स्वीट हार्ट।

गरीबों के बच्चों


गरीबी बड़ी संख्या में मासूमों को वक्त से पहले ही मौत के मुंह में धकेल दे रही है। उच्च आय वाले लोगों के बच्चों की तुलना में गरीबों के बच्चों के पांच साल की उम्र से पहले मरने की आशंका तीन गुना ज्यादा रहती है।
सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों की समीक्षा के लिए होने वाले संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन से पहले जारी एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया है। बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘सेव द चिल्डे्रन’ ने अपनी नई वैश्विक रिपोर्ट ‘ए फेयर चांस एट लाइफ’ में कहा है कि भारत और विश्व में बाल मृत्यु दर में गिरावट उच्च समुदाय के बच्चों में आई है न कि बेहद गरीब लोगों के बच्चों में। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में करीब 2.60 करोड़ बच्चे प्रतिवर्ष जन्म लेते हैं। इसमें से करीब 18.30 लाख बच्चे अपने पांचवें जन्मदिन के पहले ही मौत का शिकार हो जाते हैं। इसमें से भी करीब आधे से अधिक मौतें बच्चे के जन्म लेने के एक महीने के अंदर होती हैं।
केरल में पांच साल तक के बच्चों की मृत्यु दर एक हजार बच्चों में 14 है, जबकि मध्य प्रदेश में 1000 बच्चों में 92, उत्तर प्रदेश में 91 और उड़ीसा में 89 बच्चों की पांच साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते मौत हो जाती है। भारत के निम्न आय वाले इलाके में वर्ष 2008 में पांच साल की उम्र तक के 5.3 लाख बच्चों की मौत हो गई जबकि उच्च आय वाले क्षेत्र में 1.78 लाख बच्चों की मौत हुई।




सेठ और किसान

एक धनाढ को अपनी अकूत संपत्ति पर भारी घमंड हो गया। वह प्राय: अपने पुत्र से कहा करता कि सुख-सुविधा के जितने साधन उसके पास हैं, अन्य किसी के पास नहीं है। वह कहता कि गांवों की हालत देखोगे, तो पता चलेगा कि लोग कितने अभाव में दिन काटते हैं।
एक दिन वह पुत्र को कार में बिठाकर एक गांव ले गया। गांव में वह एक परिचित किसान के घर पहुंचा। किसान ने बड़े प्रेम से उसका स्वागत किया। मिट्टी की हंडिया में रखा गरम दूध उसे पिलाया, ताजा मक्खन, मट्ठे और सब्जी के साथ गरम-गरम रोटियां खिलाईं। लौटते समय कार में गुड़ व गन्ने रख दिए।
लौटते समय सेठ ने पुत्र से पूछा, ‘बेटा, देखा तुमने गांव की हालत। सच बताना तुम्हें कैसा लगा?’ बेटे ने कहा, ‘पिताजी यदि सच ही जानना चाहते हैं, तो सुनिए। हमारे घर में केवल एक कुत्ता है, उस किसान के घर में चार गाएं और बैल बंधे हैं। उसके बच्चे ताजा हवा में झूले झूलकर किलकारियां मार रहे थे। हमारी कोठी के पिछवाड़े छोटा-सा स्विमिंग पूल है, जबकि किसान के घर के पास नदी बह रही थी। हम फ्रिज में रखी कई-कई दिन पुरानी सब्जियां खाते हैं, जबकि उसने ताजा सब्जियों से भोजन कराया। हम एकाकी जीवन बिताते हैं और जब हम उस किसान के घर पहुंचे, तो कई लोग हमारे स्वागत के लिए आए थे। उसका अनूठा प्रेमपूर्ण व्यवहार देखकर मुझे लगा कि हमारे मुकाबले वे कहीं ज्यादा अच्छे इनसान हैं और हमसे ज्यादा अमीर भी।’
पुत्र के शब्द सुनकर सेठ का अहंकार काफूर हो चुका था। उस दिन के बाद उसने खुद को अमीर कहना छोड़ दिया।
हर दिल जवां किसान 

Monday, September 6, 2010

देश को लूट लो

देश के सांसदों की दुरावस्था की जैसी मार्मिक तसवीर देश के दो वरिष्ठ सांसदों मुलायम सिंह यादव और लालू यादव ने लोकसभा में पेश की, उससे समूचे राष्ट्र की आंखें अब भी नम हैं। जो बारहों महीने, चौबीसों घंटे देश की सेवा में रत रहते हैं, देश उनकी चिंता ही न करे, तो इससे ज्यादा एहसान-फरामोशी और क्या हो सकती है? इसलिए इन सांसदों से पूछना जरूरी है कि कितना वेतन चाहिए आपको? आपके वेतन-भत्ते में 200 फीसदी का जो इजाफा सरकार ने स्वीकार किया, उससे आपको अत्यंत पीड़ा हुई और आपने पूरी मर्दानगी से लड़कर उसमें 10 हजार रुपयों का इजाफा करवा लिया। फिर भी आपकी वह मांग तो पूरी नहीं ही हुई, जिसमें आपने कहा था कि आपका वेतन 80,000 रुपये से एक रुपया ज्यादा तो होना ही चाहिए, क्योंकि देश के सबसे बड़े नौकरशाहों को 80,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है।
आखिर मालिक का वेतन नौकर से कम कैसे हो सकता है? देश के सारे नौकरशाहों के मालिक सांसद ही तो हैं। हालांकि यह सवाल भी उठता है कि सांसदों का मालिक कौन है? जिस व्यवस्था में ये सांसद अपनी जगह बनाने में लगे हैं, उसकी हालत क्या है, उसके सेवकों की हालत क्या है?
राज्यसभा के एक सांसद प्रीतीश नंदी ने छह साल की अपनी जनसेवा के बाद लिखा है कि जब उन्होंने सांसद बनकर जनसेवा शुरू की, तो उन्हें चार हजार रुपये का जो वेतन मिलता था, वह अचानक ही चौगुना बढ़कर 16,000 रुपये हो गया। फिर सांसद के कार्यालय के लिए 20 हजार रुपये तथा चुनाव क्षेत्र की देखभाल के लिए 20 हजार अलग से मिले। कार खरीदने के लिए ब्याजमुक्त पैसा और संसद में उपस्थित होने के लिए प्रतिदिन एक हजार रुपये का भत्ता भी मिला। फिर पेट्रोल, फोन, घर, फर्नीचर, बिजली, पानी के साथ फूल-पौधों की देखभाल के लिए माली सब बिलकुल मुफ्त मिले हैं। प्रीतीश लिखते हैं कि इन सबके ऊपर से एक करोड़ रुपये की सांसद निधि भी है, जो अब बढ़कर दो करोड़ हो गई है। वह इसके अलावा हवाई और रेल यात्रा की भी सूची बनाते हैं। जो ज्यादा समझदार सांसद हैं, उनके पास दूसरे सारे ऐसे रास्ते भी हैं, जिनकी हम-आप कल्पना नहीं कर सकते।
जब देश में हर कोई लूट पर आमादा है, तो फिर सांसदों से हम दूसरी अपेक्षा क्यों करें? लिहाजा सांसदों को उनकी चाह का वेतन-भत्ता मिले, लेकिन जैसे हर नौकरी के साथ जिम्मेदारियां और जवाबदेहियां जुड़ी होती हैं, वे सब यहां भी तय किए जाएं। यह जरूर देखा जाए कि किस सांसद ने कितने दिन संसद की कार्यवाही में हिस्सा लिया और जितने दिन उसने हिस्सा नहीं लिया, उतने दिन का वेतन-भत्ता न दिया जाए। यह हिसाब भी रखा जाए कि सांसद साहब कितने दिन अपने संसदीय क्षेत्र में गए और लोगों के बीच उनकी समस्याओं के साथ बैठे। अगर इसमें कमी पाई गई, तो भत्ते में कटौती होगी। निर्वाचन क्षेत्र में और दिल्ली में भी उस कार्यालय की स्थिति की जांच होती रहनी चाहिए, जिसके लिए आज 90 हजार रुपये भत्ता दिया जा रहा है। यह भी देखना चाहिए कि इन दोनों दफ्तरों के दरवाजे निर्वाचन क्षेत्र के लोगों के लिए कितने वक्त खुलते हैं और कितने वक्त विशेष सौदों के लिए उनका इस्तेमाल होता है।
संसदीय समितियां कितनी बार, कहां बैठती हैं, क्या करती हैं और उनसे संसद के काम का कितना रिश्ता होता है, इसकी कसौटी बनाई जानी चाहिए। दोनों सदनों के अध्यक्ष इस बात के उत्तरदायी बनाए जाएं कि वे इसकी निगरानी करें, इसकी जानकारी सदन के पटल पर भी रखें और उसे सार्वजनिक भी किया जाए। इससे भत्तों की लूट पर अंकुश लगाया जा सकेगा।
आज हमारे 543 सांसदों में से 395 यानी 60 फीसदी करोड़पति हैं, तो 150 ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं, 73 पर गंभीर मामले हैं- हत्या से लेकर बलात्कर तक। हमारे इस दलीय लोकतंत्र में इतनी आंतरिक ताकत ही नहीं बची है कि वह सत्ता की दौड़ में नैतिकता का भी ध्यान रख सके। ऐसा क्यों न हो कि जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं, उन्हें तब तक सामान्य सांसदों जैसी सुविधाएं न मिलें, जब तक वे अदालत से बरी न हो जाएं और अगर सांसद बनने के तीन साल के भीतर वे अपराध मुक्त नहीं होते, तो वह सांसद न रहने पाएं। क्या ऐसी व्यवस्था के बाद मनचाहा वेतन लेकर हमारे सांसद काम करने को तैयार हैं?


ये हमारे देश के जनता 

Mother with Hungry Child

ये हमारे देश के नेता 



मुंबई में मराठी और हिंदी

तीन बड़ी राजनीतिक पार्टियों के मुंबई अध्यक्ष हिंदी भाषी हैं। मुंबई में कांग्रेस शुरू से ही गैर मराठी नेता को कमान देती आई है। पहले 10 साल तक रजनी पटेल, फिर 25 साल तक मुरली देवड़ा और उनके बाद पिछले कुछ सालों से कृपाशंकर सिंह मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष पद पर विराजमान हैं। शरद पवार की पार्टी राकांपा के मुंबई अध्यक्ष नरेंद्र वर्मा है तो हाल ही में राज पुरोहित भाजपा के मुंबई अध्यक्ष बने हैं। वैसे, ये तीनों अध्यक्ष बातचीत में मराठी से अपने प्रेम का इजहार करते नहीं थकते। कृपाशंकर का कहना है कि मराठी मेरी मौसी है और हिंदी मेरी मां। नरेंद्र वर्मा भी खुद को मराठी संस्कृति का हिस्सा बता रहे हैं। राज पुरोहित भी मराठी मूल्यों की दुहाई देते रहते हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि मनपा चुनाव में ये तीनों हिंदी भाषी नेता उत्तर भारतीय वोट बैक को अपनी पार्टी के खाते में लाने में कितने कामयाब होते हैं।
तीन बड़ी पार्टियों के अध्यक्ष हिंदी भाषी
महाराष्ट्र और मराठी माणुस के हितों की दुहाई देकर उद्धव और राज ठाकरे को साथ लाने की मुहिम फिर शुरू की गई है। दो माह पहले प्रकाश वलंजू ने ‘माझी चलवल,मी महाराष्ट्रचा’(मेरा आंदोलन,मैं महाराष्ट्र का हूं) के नारे के साथ यह मुहिम शुरू की थी। इसके तहत जगह-जगह बाला साहेब के पास बैठे उद्धव व राज के होर्डिंग लगाए गए थे और पोस्टरों के माध्यम से दोनों नेताओं से साथ आने की अपील की गई थी। इस बार वलंजू ने रविवार को सौ कार्यकर्ताओं के साथ राज ठाकरे के दादर स्थित निवास ‘कृष्णा कुंज’ से उद्धव ठाकरे के बांद्रा स्थित निवास ‘मातोश्री’ तक पदयात्रा निकाली।

Friday, September 3, 2010

लोकसभा कुत्तों के हवाले

देश की लोकसभा कुत्तों के हवाले किसने करी?

The parliament has gone to the dogs. देश कि संसद की ज़िम्मेदारी होती है कानून पर बातचीत करना और अपनी सम्मति से पेश हुये बिलों को कानून का दर्जा देना. इस देश की जनता की ज़िम्मेदारी थी वहां ऐसे सज्जन और जागरुक व्यक्तियों को भेजना जो ज्यादा से ज्यादा बिलों को कानून बना पायें और हर मुद्दे पर सजगता से बहस करें. लेकिन लगता है जनता ने संसद को कुत्तों के हवाले कर दिया है.

संसद जब सत्र में होती है तो खबर यही आती है कि इसने उस पर भौंक दिया, उसने इसको काट लिया, एक ग्रुप ने मिलकर दूसरे को नोंच-खसोट दिया… शोर-शराबा… चिल्लम-पें… जूता-झपटी… भौं..भौं..

ताज़ा सर्वे के अनुसार संसद को सत्र के दौरान चलाने के लिये हर मिनट 26,000 रुपये का खर्च आता है. सत्र के दौरान सारे सदस्य हवाई जहाज़ों में लद-लदकर, अपने वीआपी बंगलों में रहकर, सरकारी लाल-बत्ती वाली गाड़ियों में भरकर एक दूसरे पर भौंकने-काटने आते हैं.

संसद में इतनी ज़ोर से भौंकने वाले … नेता यह भूल जाते हैं कि वह सिर्फ संसद के खर्च का ही हर्जा नहीं कर रहे, वह देश को चलाने, बेहतर बनाने के लिये ज़रूरी कानूनों के लागू करने में दिक्कतें पैदा कर रहे हैं. एक द्सरे को गाली देना, फिर उस बात पर अपने दोस्तों, चमचों, गुर्गों को इकट्ठा करके पिल पड़ना यह सब इन कुत्तों को इस लिये सुहा रहा है क्योंकि सब सरकारी खर्च पर होता है.

- 1952-1961 के बीच राज्यसभा में सालाना औसतन 90.5 बैठकें होती थीं जो अब (1995-2001) घट कर 71.3 रह गईं हैं, लेकिन कुत्तों का खर्चा बढ़ गया है.

- 1952-1961 के बीच सालाना 68 बिल पास होते थे जो अब 49.9 की औसत पर रहे गये हैं (1995-2001).

- 11वीं लोकसभा में कुल समय का 5.28 प्रतिशत भौंकने में बरबाद हुआ, 12वीं में 10.66 प्रतिशत, 13वीं में 18.95 प्रतिशत, 14वीं में 21 प्रतिशत! … मतलब हर बार जनता पहले से ज़्यादा कुत्ते चुनकर भेज रही है.

लेकिन यह कुत्ते भौकेंगे सरकारी खर्च पर!

2007 में प्रपोज़ल दिया गया कि अगर काम नहीं तो पैसा नहीं की तर्ज पर संसद में हंगामा करने वाले नेताओं की पगार व भत्ते रोक लिये जायें, लेकिन इस प्रपोज़ल को किसी भी राजनैतिक दल ने मंजूरी नहीं दी.

मतलब कुत्ते संसद में आयेंगे. भौंकेगे और सरकारी माल खा-खाकर और मोटे होकर आयेंगे और फिर भौंकेगे.

इस देश की संसद कुत्तों के हवाले किसने की? क्यों की?

इन कुत्तों से देश को बचाओ

हम अपनी भूमी को ‘सुजलाम-सुफलाम’ कहते हैं, लेकिन शायद इसकी नेता पैद करने की कूव्वत आज़ादी की लड़ाई में ही चुक गई. अब सिर्फ कुत्ते पैदा हो रहे हैं जिनमें से सबसे ज्यादा खतरनाक, भौंकेले कुत्ते हम संसद में चुन-चुनकर भेज रहे हैं.

कुत्तों को संसद में बार-बार भेजना हमारी ही गलती है, इसे सुधारने कोई और नहीं आयेगा कोशिश हमें ही करनी होगी.

--------

(इस लेख को पूरा लिखने के बाद महसूस हुआ कि मैंने गलत लिख दिया. इस तरह घटिया शब्द इस्तेमाल करके किसी को बेइज़्ज़त करना ठीक नहीं. नेताओं को कुत्ते कहना सही नहीं है. मुझे कोई हक नहीं है उन्हें गाली देने का.

कुत्ते तो जिसका खाते है, उसका साथ मरते दम तक पूरी वफादारी से निभाते हैं. नेता अपने देश तक को नहीं छोड़ते… कोई खदानों को लूट रहा है, कोई आइपीएल को, कोई फसलों को, कोई कम्युनिकेशन संपदा उद्योपतियों को बेच रहा है

नहीं… मुझसे गलती हुई. नेताओं को कुत्ता कहकर मैं कुत्तों को इस कदर बेइज़्ज़त कर गया. मुझे माफ कर देना कुत्तों! मैं शर्मिंदा हूं कि मैंने तुम्हें गाली दी.)

Bihari Comment

प्रतिभा पाटिल कि जगह किरण बेदी क्यों नहीं?

किरण बेदी देश कीपहली महिला आईपीएसऑफ़िसर हैं. यह भी सहीहै कि वे देश की ऐसीपहली महिला ऑफ़िसर हैंजो चाहें-करें, उसकी चर्चामीडिया में ज़रूर होती है.वे पुलिस में ना होतीं तोमीडिया या फिर पॉलीटिक्स में ज़रूर होती. हालांकि वे टेनिस प्लेयर बनने काख़्वाब भी रखती थीं. अच्छे काम का श्रेय लेना भी वे ख़ूब जानती हैं. चाहे तिहाड़जेल में किए गए सुधार के काम हों या अपने ग़ैर सरकारी संगठननवज्योतिके ज़रिए किए जाने वाले सामाजिक सुधार के काम. पुरुष-प्रधान व्यवस्थामहिला आधिपत्य को नहीं स्वीकारती लिहाज़ा वरिष्ठ अफ़सरों से मतभेदों कोलेकर वे चर्चा में भी रहीं.

यह भूमिका इसलिए बनाई गई क्योंकि जब कभी देश में महिला सशक्तिकरण कीबात होती है श्रीमती बेदी का चेहरा हमारे सामने जाता है. बेहद सुलझी विचारोंकी और दृढ़-संकल्पित महिला के रूप में उनकी छवि उभरती है. दो साल पहले हीवे संयुक्त राष्ट्र संघ से लौटी थीं. किरण बेदी फ़िलहाल ब्यूरो ऑफ़ पुलिस रिसर्चएण्ड डेवलपमेंट में डीजी के पद पर तैनात है.

आज ही के दिन महिला सशक्तिकरण के अभियान में नया अध्याय शुरू हुआ है.देश को प्रतिभा पाटिल मिली है हमारी पहली महिला राष्ट्रप्रमुख ! (राष्ट्रपति कहनेमें लिंगभेद नज़र आता है)…. लोग दबी ज़ुबान कहते रहे कि केंद्र की सरकार नेप्रतिभा जी को जीताने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया और सुपर पीएम कही जानेवाली सोनिया जी की पूरी कॉग्रेस पार्टी और लेफ़्ट इस मुद्दे पर एकमत हो गए.यह बात भी ध्यान देने वाली है कि देश को पांच साल पहले भी कैप्टन लक्ष्मीसहगल के रूप में पहली महिला राष्ट्रपति मिल सकती थी. लेकिन सहगलसोनिया जी के पीछे लगी कतार में नहीं थीं.

दिल्ली के उप राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में किरण बेदी को दिल्ली का पुलिसकमीश्नर बनाए जाने की सिफ़ारिश की थी. लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय नहीं चाहता कि किरण बेदी दिल्ली की पुलिस कमीश्नर बनें. वरिष्ठता के क्रम में भीबेदी ही नवनियुक्त कमीश्नर वाई एस डडवाल से कहीं ज़्यादा अनुभवी औरलोकप्रिय हैं. श्रीमती बेदी 1972 बैच की अधिकारी है जबकि डडवाल 1974 केअधिकारी है. यह भी ख़बरें छपी कि डडवाल वही अधिकारी हैं जो जेसिका लालहत्याकांड की रात टैमरिन कोर्ट की उसी पार्टी में मौजूद थे, जहां हत्या हुई थी.

ईमानदारों से हर शातिर घबराता है और हमारी व्यवस्था में किरण बेदीजैसे लोग फिट नहीं नज़र आते. व्यवस्था में शीर्ष पर बैठे लोग इतनेचतुर है कि बेदी जैसे लोगों को किनारे करने का कोई भी मौक़ा नहींचूकते. सरकारी व्यवस्था में असरकारी कामों के लिए कोई जगह नहीं होती. राजनीति नौकरशाहों को अपना दरख़रीद ग़ुलाम बनाकर रखना चाहती है.

श्रीमती बेदी के साथ किसी पार्टी के लोग नहीं है.. कलाम साहब देश की जनता के राष्ट्रपति थे (हैं). कलाम साहब आज राष्ट्रपति भवन से रिटायर कर गए. किरण बेदी अपने को दिल्ली का पुलिस कमीश्नर ना बनाए जाने से नाराज़ होकर तीन महीने की छुट्टी पर चली गई हैं. प्रतिभा का सम्मान हुआ और किरण का अपमान हुआ.. क्यों? ये सोचने वाली बात है.