Friday, September 17, 2010
क्या आपने देखा है भगवान् को? (अयोध्या राम मंदिर पर विशेष )
Wednesday, September 15, 2010
राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण हो ?
Ramjanmbhumi Ramjanambhumi ayodhya
सपनों में खिड़कियां
Monday, September 13, 2010
राष्ट्र बेचैन है
मंतव्य : ह्रदय नारायण दीक्षित
Thursday, September 9, 2010
ऐसे हमारे देश के नकाम प्रधान मंत्री
Wednesday, September 8, 2010
आधुनिक राधा
गरीबों के बच्चों
सेठ और किसान
Monday, September 6, 2010
देश को लूट लो
मुंबई में मराठी और हिंदी
Friday, September 3, 2010
लोकसभा कुत्तों के हवाले
देश की लोकसभा कुत्तों के हवाले किसने करी?
The parliament has gone to the dogs. देश कि संसद की ज़िम्मेदारी होती है कानून पर बातचीत करना और अपनी सम्मति से पेश हुये बिलों को कानून का दर्जा देना. इस देश की जनता की ज़िम्मेदारी थी वहां ऐसे सज्जन और जागरुक व्यक्तियों को भेजना जो ज्यादा से ज्यादा बिलों को कानून बना पायें और हर मुद्दे पर सजगता से बहस करें. लेकिन लगता है जनता ने संसद को कुत्तों के हवाले कर दिया है.
संसद जब सत्र में होती है तो खबर यही आती है कि इसने उस पर भौंक दिया, उसने इसको काट लिया, एक ग्रुप ने मिलकर दूसरे को नोंच-खसोट दिया… शोर-शराबा… चिल्लम-पें… जूता-झपटी… भौं..भौं..
ताज़ा सर्वे के अनुसार संसद को सत्र के दौरान चलाने के लिये हर मिनट 26,000 रुपये का खर्च आता है. सत्र के दौरान सारे सदस्य हवाई जहाज़ों में लद-लदकर, अपने वीआपी बंगलों में रहकर, सरकारी लाल-बत्ती वाली गाड़ियों में भरकर एक दूसरे पर भौंकने-काटने आते हैं.
संसद में इतनी ज़ोर से भौंकने वाले … नेता यह भूल जाते हैं कि वह सिर्फ संसद के खर्च का ही हर्जा नहीं कर रहे, वह देश को चलाने, बेहतर बनाने के लिये ज़रूरी कानूनों के लागू करने में दिक्कतें पैदा कर रहे हैं. एक द्सरे को गाली देना, फिर उस बात पर अपने दोस्तों, चमचों, गुर्गों को इकट्ठा करके पिल पड़ना यह सब इन कुत्तों को इस लिये सुहा रहा है क्योंकि सब सरकारी खर्च पर होता है.
- 1952-1961 के बीच राज्यसभा में सालाना औसतन 90.5 बैठकें होती थीं जो अब (1995-2001) घट कर 71.3 रह गईं हैं, लेकिन कुत्तों का खर्चा बढ़ गया है.
- 1952-1961 के बीच सालाना 68 बिल पास होते थे जो अब 49.9 की औसत पर रहे गये हैं (1995-2001).
- 11वीं लोकसभा में कुल समय का 5.28 प्रतिशत भौंकने में बरबाद हुआ, 12वीं में 10.66 प्रतिशत, 13वीं में 18.95 प्रतिशत, 14वीं में 21 प्रतिशत! … मतलब हर बार जनता पहले से ज़्यादा कुत्ते चुनकर भेज रही है.
लेकिन यह कुत्ते भौकेंगे सरकारी खर्च पर!
2007 में प्रपोज़ल दिया गया कि अगर काम नहीं तो पैसा नहीं की तर्ज पर संसद में हंगामा करने वाले नेताओं की पगार व भत्ते रोक लिये जायें, लेकिन इस प्रपोज़ल को किसी भी राजनैतिक दल ने मंजूरी नहीं दी.
मतलब कुत्ते संसद में आयेंगे. भौंकेगे और सरकारी माल खा-खाकर और मोटे होकर आयेंगे और फिर भौंकेगे.
इस देश की संसद कुत्तों के हवाले किसने की? क्यों की?
इन कुत्तों से देश को बचाओ
हम अपनी भूमी को ‘सुजलाम-सुफलाम’ कहते हैं, लेकिन शायद इसकी नेता पैद करने की कूव्वत आज़ादी की लड़ाई में ही चुक गई. अब सिर्फ कुत्ते पैदा हो रहे हैं जिनमें से सबसे ज्यादा खतरनाक, भौंकेले कुत्ते हम संसद में चुन-चुनकर भेज रहे हैं.
कुत्तों को संसद में बार-बार भेजना हमारी ही गलती है, इसे सुधारने कोई और नहीं आयेगा कोशिश हमें ही करनी होगी.
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(इस लेख को पूरा लिखने के बाद महसूस हुआ कि मैंने गलत लिख दिया. इस तरह घटिया शब्द इस्तेमाल करके किसी को बेइज़्ज़त करना ठीक नहीं. नेताओं को कुत्ते कहना सही नहीं है. मुझे कोई हक नहीं है उन्हें गाली देने का.
कुत्ते तो जिसका खाते है, उसका साथ मरते दम तक पूरी वफादारी से निभाते हैं. नेता अपने देश तक को नहीं छोड़ते… कोई खदानों को लूट रहा है, कोई आइपीएल को, कोई फसलों को, कोई कम्युनिकेशन संपदा उद्योपतियों को बेच रहा है
नहीं… मुझसे गलती हुई. नेताओं को कुत्ता कहकर मैं कुत्तों को इस कदर बेइज़्ज़त कर गया. मुझे माफ कर देना कुत्तों! मैं शर्मिंदा हूं कि मैंने तुम्हें गाली दी.)
Bihari Comment
प्रतिभा पाटिल कि जगह किरण बेदी क्यों नहीं?
किरण बेदी देश कीपहली महिला आईपीएसऑफ़िसर हैं. यह भी सहीहै कि वे देश की ऐसीपहली महिला ऑफ़िसर हैंजो चाहें-करें, उसकी चर्चामीडिया में ज़रूर होती है.वे पुलिस में ना होतीं तोमीडिया या फिर पॉलीटिक्स में ज़रूर होती. हालांकि वे टेनिस प्लेयर बनने काख़्वाब भी रखती थीं. अच्छे काम का श्रेय लेना भी वे ख़ूब जानती हैं. चाहे तिहाड़जेल में किए गए सुधार के काम हों या अपने ग़ैर सरकारी संगठन ‘नवज्योति‘के ज़रिए किए जाने वाले सामाजिक सुधार के काम. पुरुष-प्रधान व्यवस्थामहिला आधिपत्य को नहीं स्वीकारती लिहाज़ा वरिष्ठ अफ़सरों से मतभेदों कोलेकर वे चर्चा में भी रहीं.
यह भूमिका इसलिए बनाई गई क्योंकि जब कभी देश में महिला सशक्तिकरण कीबात होती है श्रीमती बेदी का चेहरा हमारे सामने आ जाता है. बेहद सुलझी विचारोंकी और दृढ़-संकल्पित महिला के रूप में उनकी छवि उभरती है. दो साल पहले हीवे संयुक्त राष्ट्र संघ से लौटी थीं. किरण बेदी फ़िलहाल ब्यूरो ऑफ़ पुलिस रिसर्चएण्ड डेवलपमेंट में डीजी के पद पर तैनात है.
आज ही के दिन महिला सशक्तिकरण के अभियान में नया अध्याय शुरू हुआ है.देश को प्रतिभा पाटिल मिली है हमारी पहली महिला राष्ट्रप्रमुख ! (राष्ट्रपति कहनेमें लिंगभेद नज़र आता है)…. लोग दबी ज़ुबान कहते रहे कि केंद्र की सरकार नेप्रतिभा जी को जीताने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया और सुपर पीएम कही जानेवाली सोनिया जी की पूरी कॉग्रेस पार्टी और लेफ़्ट इस मुद्दे पर एकमत हो गए.यह बात भी ध्यान देने वाली है कि देश को पांच साल पहले भी कैप्टन लक्ष्मीसहगल के रूप में पहली महिला राष्ट्रपति मिल सकती थी. लेकिन सहगलसोनिया जी के पीछे लगी कतार में नहीं थीं.
दिल्ली के उप राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में किरण बेदी को दिल्ली का पुलिसकमीश्नर बनाए जाने की सिफ़ारिश की थी. लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय नहीं चाहता कि किरण बेदी दिल्ली की पुलिस कमीश्नर बनें. वरिष्ठता के क्रम में भीबेदी ही नवनियुक्त कमीश्नर वाई एस डडवाल से कहीं ज़्यादा अनुभवी औरलोकप्रिय हैं. श्रीमती बेदी 1972 बैच की अधिकारी है जबकि डडवाल 1974 केअधिकारी है. यह भी ख़बरें छपी कि डडवाल वही अधिकारी हैं जो जेसिका लालहत्याकांड की रात टैमरिन कोर्ट की उसी पार्टी में मौजूद थे, जहां हत्या हुई थी.
ईमानदारों से हर शातिर घबराता है और हमारी व्यवस्था में किरण बेदीजैसे लोग फिट नहीं नज़र आते. व्यवस्था में शीर्ष पर बैठे लोग इतनेचतुर है कि बेदी जैसे लोगों को किनारे करने का कोई भी मौक़ा नहींचूकते. सरकारी व्यवस्था में असरकारी कामों के लिए कोई जगह नहीं होती. राजनीति नौकरशाहों को अपना दरख़रीद ग़ुलाम बनाकर रखना चाहती है.
श्रीमती बेदी के साथ किसी पार्टी के लोग नहीं है.. कलाम साहब देश की जनता के राष्ट्रपति थे (हैं). कलाम साहब आज राष्ट्रपति भवन से रिटायर कर गए. किरण बेदी अपने को दिल्ली का पुलिस कमीश्नर ना बनाए जाने से नाराज़ होकर तीन महीने की छुट्टी पर चली गई हैं. प्रतिभा का सम्मान हुआ और किरण का अपमान हुआ.. क्यों? ये सोचने वाली बात है.