Tuesday, February 24, 2009

पाने की चाह में

पाने की चाह में खोया बहुत हूँ मैं।
हंसने की चाह में रोया बहुत हूँ मैं।


सागर में मोती हमें भी मिल जायेगे
इसीलिए खुदको डुबोया बहुत हूँ मैं।

इंसानियत कहीं बिखर ही न जाये
प्यार में सबको पिरोया बहुत हूँ मैं।

कैसे कहूँ कैसे सही है उसकी जुदाई
इन आँखों को भिगोया बहुत हूँ मैं।

महक उठे जहाँ फूलों की खुशबू से
फूलों को सचमुच बोया बहुत हूँ मैं।

ठुकरा करके वो कहीं न चली जाये
इसलिए नखरों को ढोया बहुत हूँ मैं।

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